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अ॒ग्रे॒णीर॑सि स्वावे॒शऽउ॑न्नेतॄ॒णामे॒तस्य॑ वित्ता॒दधि॑ त्वा स्थास्यति दे॒वस्त्वा॑ सवि॒ता मध्वा॑नक्तु सुपिप्प॒लाभ्य॒स्त्वौष॑धीभ्यः। द्यामग्रे॑णास्पृक्ष॒ऽआन्तरि॑क्षं॒ मध्ये॑नाप्राः पृथि॒वीमुप॑रेणादृꣳहीः ॥२॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

अ॒ग्रे॒णीः। अ॒ग्रे॒नीरित्य॑ग्रे॒ऽनीः। अ॒सि॒। स्वा॒वे॒श इति॑ सुऽआवे॒शः। उ॒न्ने॒तॄ॒णामित्यु॑त्ऽनेतॄ॒णाम्। ए॒तन्य॑। वि॒त्ता॒त्। अधि॑। त्वा॒। स्था॒स्य॒ति॒। दे॒वः। त्वा॒। स॒वि॒ता। मध्वा॑। अ॒न॒क्तु॒। सु॒पि॒प्प॒लाभ्य॒ इति॑ सुऽपिप्प॒लाभ्यः॑। त्वा॒। ओष॑धीभ्यः। द्याम्। अग्रे॑ण। अ॒स्पृ॒क्षः॒। आ। अ॒न्तरि॑क्षम्। मध्ये॑न। अ॒प्राः॒। पृ॒थि॒वीम्। उ॑परेण। अ॒दृ॒ꣳहीः॒ ॥२॥

यजुर्वेद » अध्याय:6» मन्त्र:2


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर वह तिलक किया हुआ सभाध्यक्ष कैसे वर्त्ते, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभाध्यक्ष ! जैसे (अग्रेणीः) पढ़ानेवाला अपने शिष्यों को वा पिता अपने पुत्रों को उन के पठनारम्भ से पहिले ही अच्छी शिक्षा से उन्हें सुशील जितेन्द्रिय धार्मिकतायुक्त करता है, वैसे हम सभी के लिये तू (असि) है, (उन्नेतृणाम्) जैसे उत्कर्षता पहुँचानेवालों का राज्य हो, वैसे (स्वावेशः) अच्छे गुणों में प्रवेश करनेवाले के समान होकर तू (एतस्य) इस राज्य के पालने को (वित्तात्) जान। हे राजन् ! जैसे (त्वा) तुझे सभासद् जन (सुपिप्पलाभ्यः) अच्छे-अच्छे फलोंवाली (ओषधीभ्यः) औषधियों से (मध्वा) निष्पन्न किये हुए मधुर गुणों से युक्त रसों से (अनक्तु) सीचें, वैसे प्रजाजन भी तुझे सीचें। तू इस राज्य में अपने (अग्रेण) प्रथम यश से (द्याम्) विद्या और राजनीति के प्रकाश को (अस्पृक्षः) स्पर्श कर (मध्येन) मध्य अर्थात् तदनन्तर बढ़ाए हुए यश से (अन्तरिक्षम्) धर्म के विचार करने के मार्ग को (आप्राः) पूरा कर और (उपरेण) अपने राज्य के नियम से (पृथिवीम्) इस भूमि के राज्य को प्राप्त होकर (अदृꣳहीः) दृढ़ कर बढ़ता जा और (देवः) समस्त राजाओं का राजा (सविता) सब जगत् को अन्तर्यामीपन से प्रेरणा देनेवाला जगदीश्वर (त्वा) तुझ को राजा करके तेरे पर (स्थास्यति) अधिष्ठाता होकर रहेगा ॥२॥
भावार्थभाषाः - प्रजा पुरुषों के स्वीकार किये विना राजा राज्य करने को योग्य नहीं होता, तथा राजा आदि सभा जिस को आदर से न चाहे, वह मन्त्री होने को वा कोई पुरुष अपनी कीर्ति की उत्तरोत्तर दृढ़ता के विना सेना का ईश्वर, यथायोग्य न्याय से दण्ड करने अर्थात् न्यायाधीश होने और राज्य के मण्डल की ईश्वरता के योग्य नहीं हो सकता ॥२॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनः सोऽभिषिक्तः सभाध्यक्षः कथं प्रवर्त्तेतेत्युपदिश्यते ॥

अन्वय:

(अग्रेणीः) यथाध्यापकाः शिष्यान् पिता स्वसन्तानान् वा पुरस्तादेव सुशिक्षया विद्यां प्रापयति, तथा (असि) (स्वावेशः) यथाप्तः शोभनं धर्ममाविशाति तथा नेता (उन्नेतॄणाम्) यथोन्नेतॄणां उत्कर्षप्रापयितॄणां राज्यं तथा (एतस्य) प्रकृतं राज्यं पालयितुम् (वित्तात्) विजानीहि (अधि) उपरिभावे (त्वा) त्वाम् (स्थास्यति) (देवः) अखिलराज्येश्वरः (त्वा) त्वाम् (सविता) सर्वस्य विश्वस्य जनिता (मध्वा) मधुरगुणेन (अनक्तु) सिञ्चतु (सुपिप्पलाभ्यः) यथा सुष्ठु फलाभ्यः (त्वा) त्वाम् (ओषधीभ्यः) प्रसिद्धाभ्यः (द्याम्) विद्यान्यायप्रकाशम् (अग्रेण) पुरस्तात् (अस्पृक्षः) स्पृश। अत्र सर्वत्र लडर्थे लुङ्। (आ) समन्तात् (अन्तरिक्षम्) धर्मप्रचारस्यावकाशम् (मध्येन) मध्यमावस्थाविशेषेण (अप्राः) पिपृहि (पृथिवीम्) भूमिराज्यम् (उपरेण) उत्कृष्टनियमेन (अदृꣳहीः) प्राप्य वर्द्धस्व ॥ अयं मन्त्रः (शत०३.७.१.९) व्याख्यातः ॥२॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे सभाध्यक्ष ! यथाग्रेणीरस्ति तथा त्वमसि उन्नेतृणां स्वावेशः सन्नेतस्यैतं राज्यं वित्तात्। हे राजन् ! यथा ते त्वां राजपुरुषसमूहः सुपिप्पलाभ्य ओषधीभ्यो मध्वाऽनक्तु, एवं प्रजापुरुषसमूहोऽपि त्वां चानक्तु, त्वमग्रेण यशसा द्यामस्पृक्षो मध्यमेन नान्तरिक्षमाप्राः, उपरेण पृथिवीं प्राप्यैवाꣳदृहीः। देवः सविता सर्वप्रेरको जगदीश्वरस्त्वाऽधि स्थास्यति ॥२॥
भावार्थभाषाः - नहि कश्चिज्जनो राजप्रजापुरुषैरस्वीकृतो राज्यमर्हति, न चापि राज्ञानादृतः साम्राज्यं कीर्त्यनुक्रमेण विना सैनापत्यं दण्डनेतृत्वं सर्वलोकाधिपतित्वं च ॥२॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - प्रजेने स्वीकारल्याखेरीज राजा राज्य करण्यायोग्य नसतो व राजा किंवा सभा ज्याचा आदर करत नाही तो मंत्री होण्यायोग्य नसतो किंवा कोणी व्यक्ती कीर्तिमान व सामर्थ्यवान असल्याखेरीज सेनापती बनू शकत नाही, तसेच यथायोग्य न्याय दिल्याखेरीज कोणी न्यायाधीश बनू शकत नाही व राज्यमंडळाचा प्रमुख होऊ शकत नाही.